शेखर गुप्ता के दैनिक भास्कर में छपे लेख ‘अक्ल पर ताला हो तो विज्ञान कहां जाए?’ में जीएम सरसों के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि यह विदेशी न होकर स्वदेशी है। वर्तमान जीएम सरसों केवल इस रूप में स्वदेशी है कि इस पर पैसा भारत का लगा है और आवेदक भारतीय है परन्तु इसमें प्रयुक्त कम से कम एक जीन के बौद्धिक सम्पदा अधिकार उस बहुराष्ट्रीय कम्पनी 'बेयर' के पास हैं जो भारत में उस खरपतवारनाशक की सबसे बड़ी विक्रेता है जिसके प्रति इस जीएम सरसों को सहनशील बनाया गया है।
इस को बनाने में प्रयोग की गई विभिन्न जीन सामग्री और प्रक्रियाओं के बौद्धिक सम्पदा अधिकारों की स्थिति अस्पष्ट है क्योंकि जीएम सरसों पर शोध एवं अनुसंधान के लिए किए गए सामग्री हस्तांतरण समझौतों के नियम और शर्तें सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं। इन में प्रयुक्त तकनीक में कम से कम पांच पेटण्ट दिये जा चुके हैं जिन में अमरीका इत्यादि भी शामिल हैं (पूरा विवरण सार्वजनिक नहीं है) वैसे भी दिल्ली विश्वविद्यालय की यह सरसों इस बेयर कम्पनी की उस जीएम सरसों जैसी ही है, जिसे 2002 में नकारा जा चुका है; दोनों में वही तीन जीन डाले गए हैं। स्वदेशी जीएम बाबत दो बातें और; क्या हम किसी ज़हर को इसलिए खा लेंगे कि यह हमारे अपने वैज्ञानिकों ने विकसित किया है? जाहिर है नहीं। दूसरा, इस स्वदेशी जीएम सरसों और जीएम खाद्य पदार्थों का विरोध करने वाले वैज्ञानिक भी स्वदेशी ही हैं और इन में भारत में इस तकनीक के पुरोधा प्रो पुष्प एम भार्गव भी शामिल हैं।